माहौल एलेक्शंस का है और इस बार करोड़ों युवा मतदाता 2024 के लोकसभा इलेक्शन में अपना पहला वोट डालेंगे। हमारा समाज यह मानता है कि 18 साल की उम्र में इंसान बालिग हो जाता है यह कानून भी मानता है कि अब वह मैच्योर है और अपने जीवन के फैसले खुद ले सकता है। उसे वोट देने, प्रॉपर्टी खरीदने, ड्राइविंग लाइसेंस हासिल करने जैसे अधिकार मिल जाते हैं लेकिन साथ ही गलती करने पर सजा भी किसी वयस्क जितनी ही मिलती है।
लेकिन अगर बात साइकोलॉजी के आधार पर करें तो किसी शख्स का 18 साल का होना और उसका परिपक्व होना, दो अलग-अलग बातें हैं।
उम्र का मैच्योरिटी से संबंध तो है, लेकिन सिर्फ उम्र को किसी शख्स की परिपक्वता की निशानी नहीं माना जा सकता। 16 साल का किशोर भी मैच्योर हो सकता है जबकि दूसरी ओर 3० साल का इंसान भी मेंटली और इमोशनली इमैच्योर हो यह भी संभव है ।
आमतौर पर परिपक्वता को सीधे-सीधे उम्र से जोड़कर देखा जाता है। जिसकी उम्र जितनी अधिक है, वह उतना ज्यादा परिपक्व माना जाता है। हालांकि ऐसी सोच पूरी तरह से सही नहीं है।
अमेरिकन साइकोलॉजिकल असोसिएशन(APA) की एक रिपोर्ट बताती है कि परिपक्वता यानी मैच्योरिटी एक मानसिक स्थिति है, जिसमें पहुंचने के बाद कोई शख्स भावनात्मक रूप से मजबूत और स्थिर हो जाता है। छोटी-छोटी बातों पर अपना आपा नहीं खोता, हर काम सोच समझ कर करता है, रिश्तों को समझने लगता है और संभालने की बेहतर स्थिति में पहुंच जाता है।
मेडिकल साइंस ये मानती है कि बच्चे के जन्म के साथ ही उसका दिमाग हर दिन विकसित हो रहा होता है। भूख या चोट लगने पर रोना, मां या खिलौने को देखकर खुश हो जाना, यह इमोशंस तो जन्म के साथ ही मिलते हैं। लेकिन यह मैच्योरिटी धीरे-धीरे आती है कि अपनी पसंदीदा चीज न मिलने पर रोना नहीं है, बल्कि दिमाग से सोचना है कि वह कैसे मिलेगी।
मनुष्य के शरीर और मस्तिष्क के विकास का यह क्रम ताउम्र चलता रहता है। आमतौर पर 25 साल के आसपास लोग इतने परिपक्व हो जाते हैं, जिन्हें मनोविज्ञान की भाषा में ‘इमोशनली मैच्योर’ कहा जा सकता है। हालांकि परिपक्वता की यह यात्रा यहां रुकती नहीं है। किस उम्र में कोई कितना परिपक्व होगा, यह उसकी अपब्रिंगिंग और पर्सनैलिटी से तय होता है नाकि सिर्फ उम्र में बड़ा होने से ही उसे मैच्योर माना जा सकता है।
इंसानी शरीर की बनावट भी मैच्योरिटी पर असर डाल सकती है। मनोवैज्ञानिक इंसानी दिमाग के प्री-फ्रंटल कार्टेक्स को परिपक्वता से जोड़कर देखते हैं। ब्रेन का यह हिस्सा पूरी तरह विकसित होने में सबसे लंबा समय लेता है और 22-23 साल की उम्र तक जाकर ही पूरी तरह विकसित हो पाता है।
प्री-फ्रंटल कार्टेक्स (PFC) हायर कॉग्निटिव स्किल के साथ डिसिजन मेकिंग, तर्कशीलता, समझदारी, इंपल्स कंट्रोल और स्ट्रेस मैनेजमेंट के लिए जिम्मेदार होता है। दिमाग के इस हिस्से से सोचना शुरू करने के बाद इंसान भावुक की जगह तर्कशील हो जाता है। भावनाओं मे बहकर फैसले नहीं लेता। कुछ भी करने से पहले अपनी इच्छा-अनिच्छा, फायदे-नुकसान का गणित लगा पाता है।
जैसाकि हम जानते हैं कि प्री-फ्रंटल कार्टेक्स देर से विकसित होता है, लेकिन बच्चा बुनियादी इंस्टिक्टिव ब्रेन यानी सेरेबेलम के साथ ही जन्म लेता है। दिमाग का ये हिस्सा उसके नेचुरल इंस्टिंक्ट जैसे भूख लगने पर खाना मांगना, चोट लगने पर रोना के लिए जिम्मेदार होता है। इन्हें सीखने की जरूरत नहीं होती।
लेकिन 20 से 25 साल की उम्र में विकसित होने वाले प्री-फ्रंटल कार्टेक्स में अपनी कोशिशों से सीखी गई चीजें स्टोर होती हैं। दिमाग का यही हिस्सा मैच्योरिटी के लिए जिम्मेदार होता है।
मैच्योरिटी एक अच्छी खुशहाल जिंदगी के लिए हवा, पानी और अच्छी सेहत की तरह जरूरी है। मैच्योरिटी से तय होता है कि आपके रिश्ते कितने अच्छे होंगे, आप ऑफिस में कितना अच्छा परफॉर्म करेंगे और आप जीवन में हमेशा हर जगह विवेकपूर्ण फैसले लेंगे।
कुल मिलाकर हमारे जीवन की ओवरऑल क्वालिटी इस बात से तय हो रही है कि हम कितने परिपक्व हैं।
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